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कु॒क्कु॒टो᳖ऽसि॒ मधु॑जिह्व॒ऽइष॒मूर्ज॒माव॑द॒ त्वया॑ व॒यꣳ स॑ङ्घा॒तꣳ स॑ङ्घातं जेष्म व॒र्षवृ॑द्धमसि॒ प्रति॑ त्वा व॒र्षवृ॑द्धं वेत्तु॒ परा॑पूत॒ꣳ रक्षः॒ परा॑पूता॒ अरा॑त॒योऽप॑हत॒ꣳ रक्षो॑ वा॒युर्वो॒ विवि॑नक्तु दे॒वो वः॑ सवि॒ता हिर॑ण्यपाणिः॒ प्रति॑गृभ्णा॒त्वच्छि॑द्रेण पा॒णिना॑ ॥१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कु॒क्कु॒टः। अ॒सि॒। मधु॑जिह्व॒ इति॒ मधु॑ऽजिह्वः। इष॑म्। ऊर्ज्ज॑म्। आ। वद॒। त्वया॑। व॒यं। सं॒घा॒तम् सं॑घात॒मि॑ति संघा॒तꣳसं॑घातम्। जे॒ष्म॒। व॒र्षवृद्ध॒मिति व॒र्षऽवृद्ध॑म्। अ॒सि॒। प्रति। त्वा॒। व॒र्षवृ॑द्ध॒मिति व॒र्षऽवृ॑द्धम्। वे॒त्तु॒। परा॑पूत॒मिति॒। परा॑ऽपूतम्। रक्षः॑। परा॑पूता॒ इति॒ परा॑ऽपूताः। अरा॑तयः। अप॑हत॒मित्यप॑ऽहतम्। रक्षः॑। वा॒युः। वः॒। वि। वि॒न॒क्तु दे॒वः। वः॒। स॒वि॒ता। हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। प्रति॑। गृ॒भ्णा॒तु॒। अच्छिद्रेण। पा॒णिना॑ ॥१६॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी यह यज्ञ कैसा है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जिस कारण यह यज्ञ (मधुजिह्वः) जिस में मधुर गुणयुक्त वाणी हो तथा (कुक्कुटः) चोर वा शत्रुओं का विनाश करनेवाला (असि) है और (इषम्) अन्न आदि पदार्थ वा (ऊर्जम्) विद्या आदि बल और उत्तम से उत्तम रस को देता है, इसी से उसका अनुष्ठान सदा करना चाहिये। हे विद्वान् लोगो ! तुम उक्त गुणों को देनेवाला जो तीन प्रकार का यज्ञ है, उसके अनुष्ठान और गुण के ज्ञाता (असि) हो, अतः हम लोगों को भी उसके गुणों का (आवद) उपदेश करो, जिससे (वयम्) हम लोग (त्वया) तुम्हारे साथ (संघातं संघातम्) जिनमें उत्तम रीति से शत्रुओं का पराजय होता है अर्थात् अति भारी संग्रामों को वारम्वार (आ जेष्म) सब प्रकार से जीतें, क्योंकि आप युद्धविद्या के जाननेवाले (असि) हैं, इसी से सब मनुष्य (वर्षवृद्धम्) शस्त्र और अस्त्रविद्या की वर्षा को बढ़ानेवाले (त्वा) आप तथा (वर्षवृद्धम्) वृष्टि के बढ़ानेवाले उक्त यज्ञ को (प्रतिवेत्तु) जानें। इस प्रकार संग्राम करके सब मनुष्यों को (परापूतम्) पवित्रता आदि गुणों को छोड़नेवाले (रक्षः) दुष्ट मनुष्य तथा (परापूताः) शुद्धि को छोड़नेवाले और (अरातयः) दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन तथा (रक्षः) डाकुओं का जैसे (अपहतम्) नाश हो सके, वैसा प्रयत्न सदा करना चाहिये। जैसे यह (हिरण्यपाणिः) जिसका ज्योति हाथ है, ऐसा जो (वायुः) पवन है, वह (अच्छिद्रेण) एकरस (पाणिना) अपने गमनागमन व्यवहार से यज्ञ और संसार में अग्नि और सूर्य्य से अति सूक्ष्म हुए पदार्थों को (प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण करता है। वा (हिरण्यपाणिः) जैसे किरण हैं हाथ जिस के वह (हिरण्यपाणिः) किरण व्यवहार से (सविता) वृष्टि वा प्रकाश के द्वारा दिव्य गुणों के उत्पन्न करने में हेतु (देवः) प्रकाशमय सूर्य्यलोक (वः) उन पदार्थों को (विविनक्तु) अलग-अलग अर्थात् परमाणुरूप करता है, वैसे ही परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना) अपने उपदेशरूप व्यवहार से सब विद्याओं को (विविनक्तु) प्रकाश करें, वैसे ही कृपा करके प्रीति के साथ (वः) तुमको अत्यन्त आनन्द करने के लिये (प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि यज्ञ का अनुष्ठान, संग्राम में शत्रुओं का पराजय, अच्छे-अच्छे गुणों का ज्ञान, विद्वानों की सेवा, दुष्ट मनुष्य वा दुष्ट दोषों का त्याग तथा सब पदार्थों को अपने ताप से छिन्न-भिन्न करनेवाला अग्नि वा सूर्य्य और उनका धारण करनेवाला वायु है, ऐसा ज्ञान और ईश्वर की उपासना तथा विद्वानों का समागम करके और सब विद्याओं को प्राप्त होके सब के लिये सब सुखों की उत्पन्न करनेवाली उन्नति सदा करनी चाहिये ॥१६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स यज्ञः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(कुक्कुटः) कुकं परद्रव्यादातारं चोरं शत्रुं वा कुटति येन स यज्ञः (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (मधुजिह्वः) मधुरगुणयुक्ता जिह्वा ज्वाला प्रयुज्यते यस्मिन् सः (इषम्) अन्नादिपदार्थसमूहम् इषमित्यन्ननामसु पठितम् (निघं꠶१।७)। (ऊर्ज्जम्) विद्यादिपराक्रममनुत्तमरसं वा (आ) क्रियायोगे (वद) उपदिश (त्वया) परमेश्वरेण विदुषा वीरेण वा सह सङ्गत्य (संघातं संघातम्) सम्यग्घन्यन्ते जना यस्मिन् तं संग्रामम्। संघात इति संग्रामनामसु पठितम् (निघं꠶२।१७)। अत्र वीप्सायां द्विरुक्तिः (जेष्म) जयेम। अत्र लिङर्थे लुड्। अड्वृद्ध्यभावश्च (वर्षवृद्धम्) शस्त्रास्त्राणां वर्धयितारम् (असि) भवति (प्रति) क्रियायोगे (त्वा) त्वां तं यज्ञं वा (वर्षवृद्धम्) वृष्टेर्वर्धकं यज्ञम् (वेत्तु) जानातु (परापूतम्) परागतं पूतं पवित्रत्वं यस्मात् तत् (रक्षः) दुष्टस्वभावो मूर्खः (परापूताः) परागतः पूतः पवित्रस्वभावो येभ्यस्ते (अरातयः) परपदार्थग्रहीतारः शत्रवः (अपहतम्) अपहन्यते यत् तत् (रक्षः) दस्युस्वभावः (वायुः) योऽयं भौतिको वाति (वः) तान् हुतान् परमाणुजलादिपदार्थान् (वि) विशेषार्थे (विनक्तु) वेचयति वेचयतु वा। अत्राद्ये पक्षे लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च (देवः) प्रकाशस्वरूपः (सविता) वृष्टिप्रकाशद्वारा दिव्यगुणानां प्रसवहेतुः (हिरण्यपाणिः) हिरण्यं ज्योतिः पाणिर्हस्तः किरणव्यवहारो वा यस्य सः। ज्योतिर्हि हिरण्यम् (शत꠶४।३।१।२१)। (प्रतिगृभ्णातु) प्रतिगृह्णाति। अत्र हृग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वं वक्तव्यम् (अष्टा꠶८।२।३२) इति हकारस्य स्थाने भकारः लडर्थे लोट् च (अच्छिद्रेण) छिद्ररहितेनैकरसेन (पाणिना) किरणसमूहेन व्यवहारेण ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।४।१८-२४) व्याख्यातः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - यतोऽयं यज्ञो मधुजिह्वः कुक्कुटोऽस्यस्तीषमूर्ज्जं च प्रापयति तस्मात् स सदैवानुष्ठेयः। हे विद्वन् ! त्वमस्य त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठानस्य गुणानां च वेत्तासि तस्माद् आवद प्रत्यक्षमुपदिश। यतो वयं त्वया सह संघातं संघातमाजेष्म सर्वान् संग्रामान् विजयेमहि। सर्वो मनुष्यो वर्षवृद्धं त्वा त्वां तं वर्षवृद्धं यज्ञं वा प्रतिवेत्तु। एवं कृत्वा सर्वैर्जनैः परापूतं रक्षः परापूता अरातयोऽपहतं रक्षः सदैव कार्य्यम्। यथाऽयं हिरण्यपाणिर्वायुरच्छिद्रेण पाणिना यज्ञे संसारेऽग्निना सूर्य्येण विच्छिन्नान् पदार्थकणान् प्रतिगृभ्णाति। यथा च हिरण्यपाणिः सविता देवः [वः] तान् विविनक्ति पृथक्करोति तथैव परमेश्वरो विद्वान् मनुष्यश्चाच्छिद्रेण पाणिना सर्वा विद्या विविनक्तु। प्रतिगृभ्णातु तथैव कृपया संप्रीत्या चैतौ वो युष्मानानन्दकरणाय प्रतिगृह्णीतः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरः सर्वान् मनुष्यानाज्ञापयति मनुष्यैर्यज्ञानुष्ठानं संग्रामे दुष्टशत्रूणां विजयो गुणज्ञानं विद्यावृद्धसेवनं दुष्टानां मनुष्याणां दोषाणां वा निराकरणं सर्वपदार्थच्छेदकोऽग्निः सूर्य्यो वा तथा सर्वपदार्थधारको वायुश्चास्तीति विज्ञानं परमेश्वरोपासनां विद्वत्समागमं च कृत्वा सर्वा विद्याः प्राप्य सदैव सर्वार्था सुखोन्नतिः कार्येति ॥१६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. परमेश्वर सर्व माणसांना अशी आज्ञा देतो की, यज्ञाचे अनुष्ठान करा, युद्धात शत्रूंचा पराजय करा, चांगल्या गोष्टींचे ज्ञान घ्या, विद्वानांची सेवा करा, दुष्ट माणसांचा किंवा वाईट गुणांचा त्याग करा. सर्व पदार्थांना उष्णतेने छिन्नभिन्न करणारा अग्नी किंवा सूर्य व त्यांना धारण करणारा वायू यांचे ज्ञान प्राप्त करा तसेच ईश्वराची उपासना व विद्वानांची संगती करून सर्व विद्या प्राप्त करून सर्व सुखांची वृद्धी होईल, असा प्रयत्न करा.